ग़म है आवारा अकेले में भटक जाता है
जिस जगह रहिए वहाँ मिलते-मिलाते रहिए
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बूढ़ा
फ़ातिहा
जाने वालों से राब्ता रखना
बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ
एक बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा
सितंबर1965
बृन्दाबन के कृष्ण कन्हैया अल्लाह हू
दो चार गाम राह को हमवार देखना
कुछ दिनों तो शहर सारा अजनबी सा हो गया
बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं
कोई किसी से ख़ुश हो और वो भी बारहा हो ये बात तो ग़लत है
अब किसी से भी शिकायत न रही