हर माँ अपनी कोख से
अपना शौहर ही पैदा करती है
मैं भी जब
अपने कंधों पर
बूढ़े मलबे को ढो ढो कर
थक जाऊँगा
अपनी महबूबा के
कँवारे गर्भ में
छुप कर सो जाऊँगा
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आनी जानी हर मोहब्बत है चलो यूँ ही सही
मैं अपने इख़्तियार में हूँ भी नहीं भी हूँ
यूँ लग रहा है जैसे कोई आस-पास है
कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई
ये काटे से नहीं कटते ये बाँटे से नहीं बटते
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
तलाश कर न ज़मीं आसमान से बाहर
दुश्मनी लाख सही ख़त्म न कीजे रिश्ता
नज़्म बहुत आसान थी पहले
हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में
ज़िहानतों को कहाँ कर्ब से फ़रार मिला