सात सुहागनें और मेरी पेशानी!
संदल की तहरीर
भला पत्थर के लिखे को क्या धोएगी
बस इतना है
जज़्बे की पूरी नेकी से
सब ने अपने अपने ख़ुदा का इस्म मुझे दे डाला है
और ये सुनने में आया है
शाम ढले जंगल के सफ़र में
इस्म बहुत काम आते हैं!
Habib Jalib
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
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Allama Iqbal
Wasi Shah
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Rahat Indori
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Anwar Masood
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बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा
शौक़-ए-रक़्स से जब तक उँगलियाँ नहीं खुलतीं
ताज़ा मोहब्बतों का नशा जिस्म-ओ-जाँ में है
इसी में ख़ुश हूँ मिरा दुख कोई तो सहता है
अब भला छोड़ के घर क्या करते
एक मुश्त-ए-ख़ाक और वो भी हवा की ज़द में है
थक गया है दिल-ए-वहशी मिरा फ़रियाद से भी
वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी
कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
ज़ुल्म सहना भी तो ज़ालिम की हिमायत ठहरा
ख़्वाब
यही वो दिन थे जब इक दूसरे को पाया था