न जाने कौन सा आसेब दिल में बस्ता है
कि जो भी ठहरा वो आख़िर मकान छोड़ गया
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दुआ का टूटा हुआ हर्फ़ सर्द आह में है
मेरी चादर तो छिनी थी शाम की तन्हाई में
हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ
वो हम नहीं जिन्हें सहना ये जब्र आ जाता
ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
जाने कब तक तिरी तस्वीर निगाहों में रही
एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा
मसअला जब भी चराग़ों का उठा
रुकने का समय गुज़र गया है
रस्ते में मिल गया तो शरीक-ए-सफ़र न जान
वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी