रहा बरसात में ऐ शैख़ मैं सूखा न तू सूखा
यहाँ तो जिस क़दर बारिश हुई उतना लहू सूखा
भरा था इस क़दर पानी हर इक कोठे में आँगन में
नमाज़ी घर की दीवारों पे कर निकले वज़ू सूखा
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'क़मर' अपने दाग़-ए-दिल की वो कहानी मैं ने छेड़ी
दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम
इस में कोई फ़रेब तो ऐ आसमाँ नहीं
उन के जाते ही ये वहशत का असर देखा किए
तौबा कीजे अब फ़रेब-ए-दोस्ती खाएँगे क्या
वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर'
बोझ इतना भर गई थी रूह-ए-सुबुक निकल के
अगर छूटा भी उस से आइना-ख़ाना तो क्या होगा
बला से हो शाम की सियाही कहीं तो मंज़िल मिरी मिलेगी
तुम को हम ख़ाक-नशीनों का ख़याल आने तक
रुस्वा करेगी देख के दुनिया मुझे 'क़मर'
साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है