लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-जिगर याद आई
फिर तिरी पहली नज़र याद आई
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किसी की राह में काँटे किसी की राह में फूल
तुम उसी को वज्ह-ए-तरब कहो हम उसी को बाइ'स-ए-ग़म कहें
जिस क़दर जज़्ब-ए-मोहब्बत का असर होता गया
साक़िया तंज़ न कर चश्म-ए-करम रहने दे
क़दम उठे भी नहीं बज़्म-ए-नाज़ की जानिब
मोहब्बत का जहाँ है और मैं हूँ
मेरी राहों में कई मरहले दुश्वार आए
अब मैं समझा तिरे रुख़्सार पे तिल का मतलब
नज़र है जल्वा-ए-जानाँ है देखिए क्या हो
यूँ न मिलने के सौ बहाने हैं
बे-नक़ाब उन की जफ़ाओं को किया है मैं ने