कोई भी घर में समझता न था मिरे दुख सुख
एक अजनबी की तरह मैं ख़ुद अपने घर में था
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उदास शाम की यादों भरी सुलगती हवा
कोई ख़्वाब ख़्वाब सा फ़ासला
देखता था मैं पलट कर हर आन
अजीब तजरबा था भीड़ से गुज़रने का
चाँद की अव्वल किरन मंज़र-ब-मंज़र आएगी
दिल में ख़ुशबू सी उतर जाती है सीने में नूर सा ढल जाता है
मोड़ था कैसा तुझे था खोने वाला मैं
न हरीफ़ाना मिरे सामने आ मैं क्या हूँ
मैं उस की बात की तरदीद करने वाला था
पी चुके थे ज़हर-ए-ग़म ख़स्ता-जाँ पड़े थे हम चैन था
रक़्स
ग़ाएब हर मंज़र मेरा