अब मुझे थोड़ी सी ग़फ़लत से भी डर लगता है
आँख लगती है कि दीवार से सर लगता है
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सब की आँखें तो खुली हैं देखता कोई नहीं
हमारा दिल तो ग़म में भी ख़ुशी महसूस करता है
ज़िंदगी का भी किया भरोसा है
मसअले हल करते करते आदमी का ज़ेहन भी
रहे ख़याल हिक़ारत से देखने वालो
मेरे ख़त का जवाब आया था
तुम्हारी राह में आँखें बिछाए बैठा हूँ
भला कह दिया या बुरा कह दिया
हर शख़्स यहाँ साहिब-ए-इदराक नहीं है
ऐ ख़ुदा मैं सुन रहा हूँ आहटें उस वक़्त की
रखो तुम बंद बे-शक अपनी घड़ियाँ