मेरे माज़ी से चली आती है हर रोज़ वो रात
पास आ जाते हैं तेरे लब ओ ज़ुल्फ़ ओ रुख़्सार
तुम से रोका न गया अपनी हसीं यादों को
हम गिराते ही रहे वक़्त के बाम-ओ-दीवार
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इक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है
हम जो काफ़िर हैं सब की नज़रों में
फिर लाई है बरसात तिरी याद का मौसम
मुझ को तो आप मिरे ख़्वाब में मिल जाएँगे
कह रही है रविश की ताबानी
जी भर के तुम्हें देख लूँ तस्कीन हो कुछ तो
हो कर दुनिया से बेगाना
ख़्वाबों से न जाओ कि अभी रात बहुत है
बैठी सखियों के घेरे में दुल्हन
इस तरह दिल में शब-ए-तन्हाई
मौसमों का जवाब दे दीजे
सेहन-ए-गुलशन में ढूँडती है कभी