सेहन-ए-गुलशन में ढूँढती है कभी
शोख़ फूलों में बाँकपन अपना
कभी नद्दी में देखती है सबा
लहर खाता हुआ बदन अपना
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दूर घाटी से सर उठा के शफ़क़
ये कैसी सियासत है मिरे मुल्क पे हावी
फूल बिखराती हर इक मौज-ए-हवा आती है
तन्हाई
फिर लाई है बरसात तिरी याद का मौसम
वो सर-ए-शाम बाम पर आए
मुझ को तो आप मिरे ख़्वाब में मिल जाएँगे
आँखों के गुलाबों को नज़्मों में छुपा लूँगा
कह रही है रविश की ताबानी
मौसमों का जवाब दे दीजे
जब भी खिलता है सर-ए-शाख़ कोई ताज़ा गुलाब
दिल में ले कर हम आस फिरते रहे