मिरा महबूब सब का मन हरन है
नज़र कर देख वो आहू नैन है
नहीं अब जग में वैसा और साजन
मुझे सूरत-शनासी बीच फ़न है
सबी दीवाने हैं उस मह-लक़ा के
मगर वो दिल-रुबा जादू नयन है
करे रश्क-ए-गुलिस्ताँ दिल को 'फ़ाएज़'
मिरा साजन बहार-ए-अंजुमन है
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पेच भाया मुझ को तुझ दस्तार का
ऐ ख़ूब-रू फ़रिश्ता सियर-अंजुमन में आ
वही क़द्र 'फ़ाएज़' की जाने बहुत
रात दिन तू रहे रक़ीबाँ-संग
जो कहिए उस के हक़ में कम है बे-शक
तुझ को है हम से जुदाई आरज़ू
मुँह फूल से रंगीं था व सारी थी उस हरी
मेरी जाँ वो बादा-ख़्वारी याद है
पानी होवे आरसी उस मुख को देख
अब्र का साया ओ सब्ज़ा राह का
चौधवाँ उस चंदर का साल हुआ