वही क़द्र 'फ़ाएज़' की जाने बहुत
जिसे इश्क़ का ज़ख़्म कारी लगे
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रात दिन तू रहे रक़ीबाँ-संग
उश्शाक़ जाँ-ब-कफ़ खड़े हैं तेरे आस-पास
मिरा महबूब सब का मन हरन है
ऐ ख़ूब-रू फ़रिश्ता सियर-अंजुमन में आ
तुझ को है हम से जुदाई आरज़ू
मुँह फूल से रंगीं था व सारी थी उस हरी
तिरी गाली मुझ दिल को प्यारी लगे
अब्र का साया ओ सब्ज़ा राह का
रास्त अगर सर्व सी क़ामत करे
चौधवाँ उस चंदर का साल हुआ
पेच भाया मुझ को तुझ दस्तार का