ख़ुश्क पत्तों में किसी याद का शोला है 'सईद'
मैं बुझाता हूँ मगर आग भड़क जाती है
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जल थल का ख़्वाब था कि किनारे डुबो गया
कुछ लोग इब्तिदा-ए-रिफ़ाक़त से क़ब्ल ही
चिता में बैठी ख़्वाहिश
वही ख़राबा-ए-इम्काँ वही सिफ़ाल-ए-क़दीम
हम भी उसी के साथ गए होश से 'सईद'
शोरिश-ए-वक़्त हुई वक़्त की रफ़्तार में गुम
ज़ात की काल कोठरी से आख़िरी नश्रिया
मिरा वजूद हवाला तिरा हुआ आख़िर
अधूरी नस्ल का पूरा सच
हैरत-ए-पैहम हुए ख़्वाब से मेहमाँ तिरे
सब करिश्मे तअल्लुक़ात के हैं