शम-ए-उम्मीद जला बैठे थे
दिल में ख़ुद आग लगा बैठे थे
होश आया तो कहीं कुछ भी न था
हम भी किस बज़्म में जा बैठे थे
दश्त गुलज़ार हुआ जाता है
क्या यहाँ अहल-ए-वफ़ा बैठे थे
अब वहाँ हश्र उठा करते हैं
कल जहाँ अहल-ए-वफ़ा बैठे थे
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उमीदें मिट गईं अब हम-नफ़स क्या
होना है दर्द-ए-इश्क़ से गर लज़्ज़त-आश्ना
जिस को दिल से लगा के रक्खा था
शम-ए-हसरत जला गए आँसू
वो हसरत-ए-बहार न तूफ़ान-ए-ज़िंदगी
बहार-ए-नौ की फिर है आमद आमद
रोना मुझे ख़िज़ाँ का नहीं कुछ मगर 'शमीम'
गर है नए निज़ाम की तख़्लीक़ का ख़याल