चलो मय-कदे में बसेरा ही कर लो
न आना पड़ेगा न जाना पड़ेगा
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चाँदनी रात बड़ी देर के बा'द आई है
हमें ख़बर है वो मेहमान एक रात का है
क्यूँ उजड़ जाती है दिल की महफ़िल
आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम-ए-आलम
कितना बेकार तमन्ना का सफ़र होता है
वफ़ा अंजाम होती जा रही है
थकी थकी सी फ़ज़ाएँ बुझे बुझे तारे
क़ज़ा का वक़्त रुख़्सत की घड़ी है
तिरी नज़र से ज़माने बदलते रहते हैं
कोई ऐसा अहल-ए-दिल हो कि फ़साना-ए-मोहब्बत
छुप छुप के अब न देख वफ़ा के मक़ाम से
जैसे दरिया में गुहर बोलता है