आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम-ए-आलम
आप गुज़रे हैं तो इक मौज-ए-रवाँ गुज़री है
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अपनी वुसअत में खो चुका हूँ मैं
थकी थकी सी फ़ज़ाएँ बुझे बुझे तारे
कैसे जीते हैं ये किस तरह जिए जाते हैं
रात गुज़रे न दर्द-ए-दिल ठहरे
दुश्मन गए तो कशमकश-ए-दोस्ती गई
दिलों को तोड़ने वालो तुम्हें किसी से क्या
क्यूँ उजड़ जाती है दिल की महफ़िल
खोल कर इन सियाह बालों को
मग़रूर थे अपनी ज़ात पर हम
उम्र गुज़री मिरी शीरीनी-ए-गुफ़्तार के साथ
हम को तो गर्दिश-ए-हालात पे रोना आया
एक उदासी दिल पर छाई रहती है