रात जमाइयाँ ले रही है
वस्ल की सीपी जिस्म से
गुहर फूट रहे हैं
एक अजनबी लड़की
आँखों में आँखें डाले
नंगी और उकड़ूँ बैठी हुई है
वो चमन की आन है
और जान उस की
रात की रानी में रहती है
सोच रहा हूँ
मैं उस की अलमारी में
अपने आप को तह कर के रख दूँ
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ख़ुदा के वास्ते मौक़ा न दे शिकायत का
डस्टबिन
इक याद की मौजूदगी सह भी नहीं सकते
मुझे ख़बर थी मिरा इंतिज़ार घर में रहा
मैं वही दश्त हमेशा का तरसने वाला
उम्र इंकार की दीवार से सर फोड़ती है
डूब जाने का सलीक़ा नहीं आया वर्ना
मौत की ख़ुशबू
पाम के पेड़ से गुफ़्तुगू
छुप के मिलने आ जाए रौशनी की जुरअत क्या
ज़िंदा रहने के तज़्किरे हैं बहुत