मैं अपने शहर से मायूस हो के लौट आया
पुराने सोग बसे थे नए मकानों में
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वो दुख जो सोए हुए हैं उन्हें जगा दूँगा
वही जीने की आज़ादी वही मरने की जल्दी है
ज़िंदा रहने के तज़्किरे हैं बहुत
सुब्ह तक रात की ज़ंजीर पिघल जाएगी
हमला-आवर कोई अक़ब से है
मिट्टी थी ख़फ़ा मौज उठा ले गई हम को
पोस्टर
लोग लम्हों में ज़िंदा रहते हैं
तेरे चेहरे पे उजाले की सख़ावत ऐसी
सुर्ख़ चमन ज़ंजीर किए हैं सब्ज़ समुंदर लाया हूँ
मुद्दत हुई इक शख़्स ने दिल तोड़ दिया था
एक एक कर के लोग बिछड़ते चले गए