मुब्तला रूह के अज़ाब में हूँ
कब से दिल को खुरच रहा है कोई
जाने किस सुब्ह की तमन्ना में
रात-भर शम्अ' साँ जला है कोई
फ़ुर्सत-ए-ज़िंदगी बहुत कम है
और बहुत देर आश्ना है कोई
तुम भी सच्चे हो मैं भी सच्चा हूँ
कब यहाँ झूट बोलता है कोई
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नुक़ूश-ए-रहगुज़र-ए-शौक़ सब मिटा देना
जाने क्या वज्ह-ए-बेगानगी है
सीने हैं चाक और गरेबाँ सिले हुए
हर परी-वश का ए'तिबार करो
वो हर्फ़-ए-शौक़ हूँ जिस का कोई सियाक़ न हो
फ़स्ल-ए-गुल तोहमत-ए-जुनूँ लाई
लज़्ज़त-ए-संग न पूछो लोगो उम्र अगर हाथ आए फिर
जिस को चाहा था न पाया जो न चाहा था मिला
चराग़-ए-ज़ीस्त के दोनों सिरे जलाओ मत
लब तक जो न आया था वही हर्फ़-ए-रसा था
किस किस के आँसू पूछोगे और किस किस को बहलाओगे
नक़्द-ए-दिल-ओ-जाँ उस की ख़ातिर रहन-ए-जाम करो