मेरा चेहरा आईना है
आईने पर दाग़ जो होते
लहू की बरखा से मैं धोता
अपने अंदर झाँक के देखो
दिल के पत्थर में कालक की कितनी परतें जमी हुई हैं
जिन से हर निथरा-सुथरा मंज़र कजला सा गया
दरिया सूख गए हैं शर्म के मारे
कोएले पर से कालक कौन उतारे!!
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हम-सफ़र रह गए बहुत पीछे
गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था
मौज-ए-सबा रवाँ हुई रक़्स-ए-जुनूँ भी चाहिए
रहता था सामने तिरा चेहरा खुला हुआ
क्या चीज़ है ये सई-ए-पैहम क्या जज़्बा-ए-कामिल होता है
ग़म-ए-उल्फ़त मिरे चेहरे से अयाँ क्यूँ न हुआ
इश्क़ के ग़म-गुसार हैं हम लोग
ग़म-ए-हयात की लज़्ज़त बदलती रहती है
तू ने क्या क्या न ऐ ज़िंदगी दश्त ओ दर में फिराया मुझे
जब तक ग़म-ए-जहाँ के हवाले हुए नहीं
जाती है धूप उजले परों को समेट के
ग़म-ए-दिल हीता-ए-तहरीर में आता ही नहीं