नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे
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तिरी यादों से दिल फ़रोज़ाँ करेंगे
तर्क-ए-मय ही समझ इसे नासेह
इश्क़ का कोई ख़ैर-ख़्वाह तो है
रक़्क़ासा-ए-हयात से
काँटों से गुज़र जाता हूँ दामन को बचा कर
बे-तअल्लुक़ तिरे आगे से गुज़र जाता है
वो हवा दे रहे हैं दामन की
ख़ाना-ए-उम्मीद बे-नूर-ओ-ज़िया होने को है
'शकील' इस दर्जा मायूसी शुरू-ए-इश्क़ में कैसी
मेरा अज़्म इतना बुलंद है कि पराए शोलों का डर नहीं
आप जो कुछ कहें हमें मंज़ूर