वो अगर बुरा न मानें तो जहान-ए-रंग-ओ-बू में
मैं सुकून-ए-दिल की ख़ातिर कोई ढूँड लूँ सहारा
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उठा जो मीना-ब-दस्त साक़ी रही न कुछ ताब-ए-ज़ब्त बाक़ी
ये अदा-ए-बे-नियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक
कोई ऐ 'शकील' पूछे ये जुनूँ नहीं तो क्या है
आदाब-ए-आशिक़ी से बेगाना कह रही है
बात जब है ग़म के मारों को जिला दे ऐ 'शकील'
हुई हम से ये नादानी तिरी महफ़िल में आ बैठे
जीने वाले क़ज़ा से डरते हैं
आँख उन को देखती है नज़ारा किए बग़ैर
इक शहंशाह ने बनवा के....
फ़रेब-ए-मोहब्बत से ग़ाफ़िल नहीं हूँ
सब करिश्मात-ए-तसव्वुर हैं 'शकील'
नसीब दर पे तिरे आज़माने आया हूँ