उन का दरवाज़ा था मुझ से भी सिवा मुश्ताक़-ए-दीद
मैं ने बाहर खोलना चाहा तो वो अंदर खुला
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औरतों की असेंबली
हज़रत-ए-इक़बाल का शाहीं तो हम से उड़ चुका
जुनूँ पे जब्र-ए-ख़िरद जब भी होश्यार हुआ
तूफ़ाँ नहीं गुज़रे कि बयाबाँ नहीं गुज़रे
तन-आसानी नहीं जाती रिया-कारी नहीं जाती
ग़रीब-ख़ाना हमेशा से जेल-ख़ाना है
अपने ज़र्फ़ अपनी तलब अपनी नज़र की बात है
साहब की बिपता
यूँ क़त्ल-ए-आम नौ-ए-बशर कर दिया गया
हुस्न को ग़ायत-ए-नज़र जाना
हँस मगर हँसने से पहले सोच ले