फ़रिश्तों में भी जिस के तज़्किरे हैं
वो तेरे शहर में रुस्वा बहुत है
Allama Iqbal
Javed Akhtar
Jaun Eliya
Rahat Indori
Habib Jalib
Gulzar
Mir Taqi Mir
Mohsin Naqvi
Parveen Shakir
Wasi Shah
Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(709) Peoples Rate This
ख़ता मैं ने कोई भारी नहीं की
यादों की क़िंदील जलाना कितना अच्छा लगता है
हम को ख़बर है शहर में उस के संग-ए-मलामत मिलते हैं
जहान-ए-दिल में सन्नाटा बहुत है
देर तक मिल के रोते रहे राह में
बला से मर्तबे ऊँचे न रखना
तकोगे राह सहारों की तुम मियाँ कब तक
दश्त-ए-तन्हाई बादल हवा और मैं
पड़ोसी के मकाँ में छत नहीं है
अगर फूलों की ख़्वाहिश है तो सुन लो
ये माना वो शजर सूखा बहुत है