पड़ोसी के मकाँ में छत नहीं है
मकाँ अपने बहुत ऊँचे न रखना
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जहान-ए-दिल में सन्नाटा बहुत है
बला से मर्तबे ऊँचे न रखना
फ़रिश्तों में भी जिस के तज़्किरे हैं
अगर फूलों की ख़्वाहिश है तो सुन लो
दश्त-ए-तन्हाई बादल हवा और मैं
देर तक मिल के रोते रहे राह में
ये माना वो शजर सूखा बहुत है
अजनबी रास्तों पर भटकते रहे
मिरे ऐबों को गिनवाया तो सब ने
हम को ख़बर है शहर में उस के संग-ए-मलामत मिलते हैं
ख़ता मैं ने कोई भारी नहीं की