तकोगे राह सहारों की तुम मियाँ कब तक
क़दम उठाओ कि तक़दीर इंतिज़ार में है
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पड़ोसी के मकाँ में छत नहीं है
फ़रिश्तों में भी जिस के तज़्किरे हैं
दश्त-ए-तन्हाई बादल हवा और मैं
मिरे ऐबों को गिनवाया तो सब ने
हम को ख़बर है शहर में उस के संग-ए-मलामत मिलते हैं
बला से मर्तबे ऊँचे न रखना
ये माना वो शजर सूखा बहुत है
अजनबी रास्तों पर भटकते रहे
यादों की क़िंदील जलाना कितना अच्छा लगता है
जहान-ए-दिल में सन्नाटा बहुत है
ख़ता मैं ने कोई भारी नहीं की