हम को ख़बर है शहर में उस के संग-ए-मलामत मिलते हैं
फिर भी उस के शहर में जाना कितना अच्छा लगता है
Jaun Eliya
Rahat Indori
Anwar Masood
Gulzar
Wasi Shah
Mohsin Naqvi
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(518) Peoples Rate This
ये माना वो शजर सूखा बहुत है
पड़ोसी के मकाँ में छत नहीं है
जहान-ए-दिल में सन्नाटा बहुत है
अगर फूलों की ख़्वाहिश है तो सुन लो
फ़रिश्तों में भी जिस के तज़्किरे हैं
अजनबी रास्तों पर भटकते रहे
ख़ता मैं ने कोई भारी नहीं की
तकोगे राह सहारों की तुम मियाँ कब तक
दश्त-ए-तन्हाई बादल हवा और मैं
बला से मर्तबे ऊँचे न रखना
देर तक मिल के रोते रहे राह में