हम हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़ में भी मोहतरम हुए
वो इक़्तिदार में हैं मगर बे-विक़ार हैं
Jaun Eliya
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
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Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
Rahat Indori
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छत की कड़ियाँ जाँच ले दीवार-ओ-दर को देख ले
अब तक मिरे आ'साब पे मेहनत है मुसल्लत
तेरी तो आन बढ़ गई मुझ को नवाज़ कर
आज भी 'सिपरा' उस की ख़ुश्बू मिल मालिक ले जाता है
उठा लेता है अपनी एड़ियाँ जब साथ चलता है
कभी अपने वसाएल से न बढ़ कर ख़्वाहिशें पालो
जो कर रहा है दूसरों के ज़ेहन का इलाज
आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मिरा जिस्म
मैं अपने बचपने में छू न पाया जिन खिलौनों को
ग़मों की धूप में बरगद की छाँव जैसी है
बेटे को सज़ा दे के अजब हाल हुआ है