कभी अपने वसाएल से न बढ़ कर ख़्वाहिशें पालो
वो पौदा टूट जाता है जो ला-महदूद फलता है
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दिहात के वजूद को क़स्बा निगल गया
'तनवीर' अब तू हल्क़ से भोंपू का काम ले
शायद यूँही सिमट सकें घर की ज़रूरतें
अब तक मिरे आ'साब पे मेहनत है मुसल्लत
आज भी 'सिपरा' उस की ख़ुश्बू मिल मालिक ले जाता है
ग़मों की धूप में बरगद की छाँव जैसी है
हम हिज़्ब-ए-इख़्तिलाफ़ में भी मोहतरम हुए
आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मिरा जिस्म
छत की कड़ियाँ जाँच ले दीवार-ओ-दर को देख ले
मिल मालिक के कुत्ते भी चर्बीले हैं
ऐ रात मुझे माँ की तरह गोद में ले ले
औरत को समझता था जो मर्दों का खिलौना