जमाल मुझ पे ये इक दिन में तो नहीं आया
हज़ार आईने टूटे मिरे सँवरते हुए
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कोई कब दीवार बना है मेरे सफ़र में
अगर कुछ भी मिरे घर से दम-ए-रुख़्सत निकलता है
हवा का हुक्म भी अब के नज़र में रक्खा जाए
दर-ओ-बस्त-ए-अनासिर पारा पारा होने वाला है
आज किस ख़्वाब की ताबीर नज़र आई है
अब ये हंगामा-ए-दुनिया नहीं देखा जाता
ज़मीन इतनी नहीं है कि पाँव रख पाएँ
अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
ऐसी तक़्सीम की सूरत निकल आई घर में
पोशीदा किसी ज़ात में पहले भी कहीं था
इस रात किसी और क़लम-रौ में कहीं था
अब आसमान भी कम पड़ रहे हैं उस के लिए