ज़मीन इतनी नहीं है कि पाँव रख पाएँ
दिल-ए-ख़राब की ज़िद है कि घर बनाया जाए
Habib Jalib
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अभी तो मंसब-ए-हस्ती से मैं हटा ही नहीं
अगर कुछ भी मिरे घर से दम-ए-रुख़्सत निकलता है
तिरे ख़याल की लौ ही सफ़र में काम आई
उठा उठा के तिरे नाज़ ऐ ग़म-ए-दुनिया
दर-ओ-बस्त-ए-अनासिर पारा पारा होने वाला है
मैं आ रहा था सितारों पे पाँव धरते हुए
रात रो रो के गुज़ारी है चराग़ों की तरह
मिरी निगाह किसी ज़ाविए पे ठहरे भी
अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
जीना क्या है पिछ्ला क़र्ज़ उतार रहा हूँ
अब आसमान भी कम पड़ रहे हैं उस के लिए
ये ख़याल था कभी ख़्वाब में तुझे देखते