उठा उठा के तिरे नाज़ ऐ ग़म-ए-दुनिया
ख़ुद आप ही तिरी आदत ख़राब की हम ने
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Parveen Shakir
Habib Jalib
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फिर इस से क़ब्ल कि बार-ए-दिगर बनाया जाए
ख़ुश-अर्ज़ानी हुई है इस क़दर बाज़ार-ए-हस्ती में
अजब नहीं दर-ओ-दीवार जैसे हो जाएँ
ज़मीन इतनी नहीं है कि पाँव रख पाएँ
ये वीरानी सी यूँही तो नहीं रहती है आँखों में
सारी तरतीब-ए-ज़मानी मिरी देखी हुई है
रात रो रो के गुज़ारी है चराग़ों की तरह
कोई कब दीवार बना है मेरे सफ़र में
अभी तो मंसब-ए-हस्ती से मैं हटा ही नहीं
अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
अब आसमान भी कम पड़ रहे हैं उस के लिए
बे-वज्ह न बदले थे मुसव्विर ने इरादे