बे-वज्ह न बदले थे मुसव्विर ने इरादे
मैं उस के ख़यालात में पहले भी कहीं था
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अब आसमान भी कम पड़ रहे हैं उस के लिए
मुझे ज़िंदगी से ख़िराज ही नहीं मिल रहा
अगर कुछ भी मिरे घर से दम-ए-रुख़्सत निकलता है
ऐसी तक़्सीम की सूरत निकल आई घर में
कोई कब दीवार बना है मेरे सफ़र में
अभी फिर रहा हूँ मैं आप-अपनी तलाश में
ये ख़याल था कभी ख़्वाब में तुझे देखते
ज़मीन इतनी नहीं है कि पाँव रख पाएँ
उठा उठा के तिरे नाज़ ऐ ग़म-ए-दुनिया
आज किस ख़्वाब की ताबीर नज़र आई है
हवा में आए तो लौ भी न साथ ली हम ने
अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए