अभी फिर रहा हूँ मैं आप-अपनी तलाश में
अभी मुझ से मेरा मिज़ाज ही नहीं मिल रहा
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अगर कुछ भी मिरे घर से दम-ए-रुख़्सत निकलता है
ख़ुश-अर्ज़ानी हुई है इस क़दर बाज़ार-ए-हस्ती में
ऐसी तक़्सीम की सूरत निकल आई घर में
ज़मीन इतनी नहीं है कि पाँव रख पाएँ
अभी तो मंसब-ए-हस्ती से मैं हटा ही नहीं
तिरे ख़याल की लौ ही सफ़र में काम आई
अजब नहीं दर-ओ-दीवार जैसे हो जाएँ
कोई कब दीवार बना है मेरे सफ़र में
ब-नाम-ए-इश्क़ यही एक काम करते हैं
जीना क्या है पिछ्ला क़र्ज़ उतार रहा हूँ
खोल देते हैं पलट आने पे दरवाज़ा-ए-दिल
हवा का हुक्म भी अब के नज़र में रक्खा जाए