तिरे ख़याल की लौ ही सफ़र में काम आई
मिरे चराग़ तो लगता था रोए अब रोए
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अभी तो मंसब-ए-हस्ती से मैं हटा ही नहीं
फिर इस से क़ब्ल कि बार-ए-दिगर बनाया जाए
हवा में आए तो लौ भी न साथ ली हम ने
सारी तरतीब-ए-ज़मानी मिरी देखी हुई है
उठा उठा के तिरे नाज़ ऐ ग़म-ए-दुनिया
अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
मुझे ज़िंदगी से ख़िराज ही नहीं मिल रहा
ज़मीन इतनी नहीं है कि पाँव रख पाएँ
रात रो रो के गुज़ारी है चराग़ों की तरह
किनारा कर न ऐ दुनिया मिरी हस्त-ए-ज़बूनी से
इस रात किसी और क़लम-रौ में कहीं था
ब-नाम-ए-इश्क़ यही एक काम करते हैं