अजीब दर्द का रिश्ता था सब के सब रोए
शजर गिरा तो परिंदे तमाम शब रोए
Faiz Ahmad Faiz
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मैं आ रहा था सितारों पे पाँव धरते हुए
खोल देते हैं पलट आने पे दरवाज़ा-ए-दिल
अभी तो मंसब-ए-हस्ती से मैं हटा ही नहीं
ऐसी तक़्सीम की सूरत निकल आई घर में
अब ये हंगामा-ए-दुनिया नहीं देखा जाता
फिर इस से क़ब्ल कि बार-ए-दिगर बनाया जाए
अब आसमान भी कम पड़ रहे हैं उस के लिए
तिरे ख़याल की लौ ही सफ़र में काम आई
अगर कुछ भी मिरे घर से दम-ए-रुख़्सत निकलता है
कोई कब दीवार बना है मेरे सफ़र में
अजब नहीं दर-ओ-दीवार जैसे हो जाएँ
सारी तरतीब-ए-ज़मानी मिरी देखी हुई है