अजब ग़रीबी के आलम में मर गया इक शख़्स
कि सर पे ताज था दामन में इक दुआ भी न थी
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सारे ज़ख़्मों को ज़बाँ मिल गई ग़म बोलते हैं
फिर आज भूक हमारा शिकार कर लेगी
कौन सा मैं जवाज़ दूँ सूरत-ए-हाल के लिए
ख़िज़ाँ-नसीबों पे बैन करती हुई हवाएँ
वो भी रस्मन यही पूछेगा कि कैसे हो तुम
वो मेरे ख़्वाब की ताबीर तो बताए मुझे
चश्म-ए-बीना! तिरे बाज़ार का मेआर हैं हम
एक मुद्दत से ये मंज़र नहीं बदला 'तारिक़'
वो लोग भी तो किनारों पे आ के डूब गए
एक तस्वीर जलानी है अभी
ये किस की प्यास के छींटे पड़े हैं पानी पर
रेआया ज़ुल्म पे जब सर उठाने लगती है