अभी बाक़ी है बिछड़ना उस से
ना-मुकम्मल ये कहानी है अभी
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मैं चाहता हूँ कभी यूँ भी हो कि मेरी तरह
मेरे ज़ख़्मों का सबब पूछेगी दुनिया तुम से
एक तस्वीर जलानी है अभी
हवा रुकी है तो रक़्स-ए-शरर भी ख़त्म हुआ
मिज़ाज अपना मिला ही नहीं ज़माने से
ये रोज़-ओ-शब की मसाफ़त ये आना जाना मिरा
रेआया ज़ुल्म पे जब सर उठाने लगती है
वो मेरे ख़्वाब की ताबीर तो बताए मुझे
फ़ुरात-ए-इस्मत के साहिलों पर
कौन सा मैं जवाज़ दूँ सूरत-ए-हाल के लिए
सुकूत-ए-शब में