मिज़ाज अपना मिला ही नहीं ज़माने से
न मैं हुआ कभी इस का न ये ज़माना मिरा
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ये आरज़ू थी उसे आइना बनाते हम
इस लहजे से बात नहीं बन पाएगी
सुकूत-ए-शब में
जौन-एलिया से आख़री मुलाक़ात
वो मेरे ख़्वाब की ताबीर तो बताए मुझे
कैसे रिश्तों को समेटें ये बिखरते हुए लोग
वो भी रस्मन यही पूछेगा कि कैसे हो तुम
रेआया ज़ुल्म पे जब सर उठाने लगती है
अभी बाक़ी है बिछड़ना उस से
फिर आज भूक हमारा शिकार कर लेगी
ज़ेहन पर बोझ रहा, दिल भी परेशान हुआ
ये किस की प्यास के छींटे पड़े हैं पानी पर