मेरे ज़ख़्मों का सबब पूछेगी दुनिया तुम से
मैं ने हर ज़ख़्म की पहचान में रक्खा है तुम्हें
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सिसकती मज़लूमियत के नाम
मैं चाहता हूँ कभी यूँ भी हो कि मेरी तरह
सुकूत-ए-शब में
चश्म-ए-बीना! तिरे बाज़ार का मेआर हैं हम
वो मेरे ख़्वाब की ताबीर तो बताए मुझे
इस लहजे से बात नहीं बन पाएगी
ख़िज़ाँ-नसीबों पे बैन करती हुई हवाएँ
ये किस की प्यास के छींटे पड़े हैं पानी पर
वो लोग भी तो किनारों पे आ के डूब गए
न तुम मिले थे तो दुनिया चराग़-पा भी न थी
ख़ुश्क आँखों से कहाँ तय ये मसाफ़त होगी
क्या अजब लोग थे गुज़रे हैं बड़ी शान के साथ