मैं चाहता हूँ कभी यूँ भी हो कि मेरी तरह
वो मुझ को ढूँडने निकले मगर न पाए मुझे
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हर आदमी वहाँ मसरूफ़ क़हक़हों में था
सुकूत-ए-शब में
चश्म-ए-बीना! तिरे बाज़ार का मेआर हैं हम
मिज़ाज अपना मिला ही नहीं ज़माने से
क्या अजब लोग थे गुज़रे हैं बड़ी शान के साथ
जौन-एलिया से आख़री मुलाक़ात
लहु लहु आँखें
ख़ुश्क आँखों से कहाँ तय ये मसाफ़त होगी
कैसे रिश्तों को समेटें ये बिखरते हुए लोग
एक मुद्दत से ये मंज़र नहीं बदला 'तारिक़'
ज़ेहन पर बोझ रहा, दिल भी परेशान हुआ
अजब ग़रीबी के आलम में मर गया इक शख़्स