हर आदमी वहाँ मसरूफ़ क़हक़हों में था
ये आँसुओं की कहानी किसे सुनाते हम
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पाँव जब हो गए पत्थर तो सदा दी उस ने
ख़िज़ाँ-नसीबों पे बैन करती हुई हवाएँ
सारे ज़ख़्मों को ज़बाँ मिल गई ग़म बोलते हैं
कौन सा मैं जवाज़ दूँ सूरत-ए-हाल के लिए
सिसकती मज़लूमियत के नाम
देखें कितने चाहने वाले निकलेंगे
क्या अजब लोग थे गुज़रे हैं बड़ी शान के साथ
लहु लहु आँखें
ये किस की प्यास के छींटे पड़े हैं पानी पर
कैसे रिश्तों को समेटें ये बिखरते हुए लोग
कोई शिकवा न शिकायत न वज़ाहत कोई
मैं चाहता हूँ कभी यूँ भी हो कि मेरी तरह