कोई शिकवा न शिकायत न वज़ाहत कोई
मेज़ से बस मिरी तस्वीर हटा दी उस ने
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मेरे ज़ख़्मों का सबब पूछेगी दुनिया तुम से
कैसे रिश्तों को समेटें ये बिखरते हुए लोग
साथ होने के यक़ीं में भी मिरे साथ हो तुम
हर आदमी वहाँ मसरूफ़ क़हक़हों में था
इस लहजे से बात नहीं बन पाएगी
देखें कितने चाहने वाले निकलेंगे
पाँव जब हो गए पत्थर तो सदा दी उस ने
जौन-एलिया से आख़री मुलाक़ात
जैसे मुमकिन हो इन अश्कों को बचाओ 'तारिक़'
इस सलीक़े से मुझे क़त्ल किया है उस ने
हवा रुकी है तो रक़्स-ए-शरर भी ख़त्म हुआ
ये रोज़-ओ-शब की मसाफ़त ये आना जाना मिरा