किसी जवाज़ का होना ही क्या ज़रूरी है
अगर वो छोड़ना चाहे तो छोड़ जाए मुझे
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इस सलीक़े से मुझे क़त्ल किया है उस ने
मिज़ाज अपना मिला ही नहीं ज़माने से
ये रोज़-ओ-शब की मसाफ़त ये आना जाना मिरा
सुकूत-ए-शब में
ख़िज़ाँ-नसीबों पे बैन करती हुई हवाएँ
लहु लहु आँखें
अजब ग़रीबी के आलम में मर गया इक शख़्स
उस ने इक बार भी पूछा नहीं कैसा हूँ मैं
ज़ेहन पर बोझ रहा, दिल भी परेशान हुआ
वो मेरे ख़्वाब की ताबीर तो बताए मुझे
देखें कितने चाहने वाले निकलेंगे