इस सलीक़े से मुझे क़त्ल किया है उस ने
अब भी दुनिया ये समझती है कि ज़िंदा हूँ मैं
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देखें कितने चाहने वाले निकलेंगे
वो लोग भी तो किनारों पे आ के डूब गए
अपनी पलकों के शबिस्तान में रक्खा है तुम्हें
किसी जवाज़ का होना ही क्या ज़रूरी है
मैं चाहता हूँ कभी यूँ भी हो कि मेरी तरह
इस लहजे से बात नहीं बन पाएगी
ये आरज़ू थी उसे आइना बनाते हम
कभी न आएँगे जाने वाले
साथ होने के यक़ीं में भी मिरे साथ हो तुम
मिज़ाज अपना मिला ही नहीं ज़माने से
कैसे रिश्तों को समेटें ये बिखरते हुए लोग
क्या अजब लोग थे गुज़रे हैं बड़ी शान के साथ