साथ होने के यक़ीं में भी मिरे साथ हो तुम
और न होने के भी इम्कान में रक्खा है तुम्हें
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किसी जवाज़ का होना ही क्या ज़रूरी है
जितने अल्फ़ाज़ हैं सब कहे जा चुके
हवा रुकी है तो रक़्स-ए-शरर भी ख़त्म हुआ
ख़िज़ाँ-नसीबों पे बैन करती हुई हवाएँ
ये रोज़-ओ-शब की मसाफ़त ये आना जाना मिरा
जैसे मुमकिन हो इन अश्कों को बचाओ 'तारिक़'
उस ने इक बार भी पूछा नहीं कैसा हूँ मैं
कभी न आएँगे जाने वाले
क्या अजब लोग थे गुज़रे हैं बड़ी शान के साथ
लहु लहु आँखें
इस सलीक़े से मुझे क़त्ल किया है उस ने
ख़ुश्क आँखों से कहाँ तय ये मसाफ़त होगी