सख़्त पिस्ताँ तिरे चुभे दिल में
अपने हाथों से मैं ख़राब हुआ
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सिया है ज़ख़्म-ए-बुलबुल गुल ने ख़ार और बोईगुलशन से
दर्द जूँ शम्अ' मिले है शब-ए-हिज्राँ मुझ को
अरे उल्टे ज़माने मुझ पे क्या सीधा सितम लाया
असीरी बे-मज़ा लगती है बिन-सय्याद क्या कीजे
कुछ ग़ौर का जौहर नहीं ख़ुद-फ़हमी में हैराँ हैं
तुझ से बोसा मैं न माँगा कभू डरते डरते
माह-ए-कामिल हो मुक़ाबिल यार के रू से चे-ख़ुश
तल्ख़ लगता है उसे शहर की बस्ती का स्वाद
ख़ुदा किसी कूँ किसी साथ आश्ना न करे
न शोख़ियों से करे हैं वो चश्म-ए-गुल-गूँ रक़्स
आज दिल बे-क़रार है मेरा