हारने जीतने से कुछ नहीं होता 'वामिक़'
खेल हर साँस पे है दाँव लगाते रहना
Allama Iqbal
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रात के समुंदर में ग़म की नाव चलती है
जमालियात
नए गुल खिले नए दिल बने नए नक़्श कितने उभर गए
बुलाए जाते हैं मक़्तल में हम सज़ा के लिए
इस दौर की तख़्लीक़ भी क्या शीशागरी है
ज़हराब पीने वाले अमर हो के रह गए
मोहब्बत की सज़ा तर्क-ए-मोहब्बत
लाख आबाद-ए-तमन्ना हो के दिल
शमएँ रौशन हैं आबगीनों में
हो रही है दर-ब-दर ऐसी जबीं-साई कि बस
अलिफ़ लैला
यक़ीनन आ गया है मय-कदे में तिश्ना-लब कोई