है जिस की ठोकरों में आब-ए-ज़ि़ंदगी 'वामिक़'
वो तिश्नगी का समुंदर दिखाई देता है
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हमारे मय-कदे का अब निज़ाम बदलेगा
लाख आबाद-ए-तमन्ना हो के दिल
हारने जीतने से कुछ नहीं होता 'वामिक़'
नहीं मिलते तो इक अदना शिकायत है न मिलने की
ऐ काश मिरे गोश ओ नज़र भी रहें साबित
पहचान लो उस को वही क़ातिल है हमारा
इस दौर की तख़्लीक़ भी क्या शीशागरी है
देखिए कब राह पर ठीक से उट्ठें क़दम
बर्क़ सर-ए-शाख़-सार देखिए कब तक रहे
उसे ज़िद कि 'वामिक़'-ए-शिकवा-गर किसी राज़ से न हो बा-ख़बर
दिल तोड़ कर वो दिल में पशीमाँ हुआ तो क्या