यक़ीनन आ गया है मय-कदे में तिश्ना-लब कोई
कि पीता जा रहा हूँ कैफ़ियत कम होती जाती है
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वो तो कहिए आज भी ज़ंजीर में झंकार है
इक हल्क़ा-ए-अहबाब है तन्हाई भी उस की
फ़नकार के काम आई न कुछ दीदा-वरी भी
दिल के वीराने को यूँ आबाद कर लेते हैं हम
ऐ काश मिरे गोश ओ नज़र भी रहें साबित
हम न कहते थे शाइरी है वबाल
कौन सुनता है भिकारी की सदाएँ इस लिए
सफ़र-ए-ना-तमाम
हम को हाजत नहीं नक़ीबों की
ज़हराब पीने वाले अमर हो के रह गए
ज़बाँ तक जो न आए वो मोहब्बत और होती है
ये ज़िंदगी की रात है तारीक किस क़दर